भगवान् के प्रति तथा औरों के प्रति कर्तव्य

 

    भगवान् के प्रति कर्तव्य किसी सामाजिक या पारिवारिक कर्तव्य की अपेक्षा कहीं अधिक पवित्र है; अधिक पवित्र इसलिए क्योंकि मानव समुदाय में लगभग पूरी तरह इसकी अवहेलना होती है या इसे गलत समझा जाता है ।

 

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    जिसने एक बार अपने-आपको भगवान् के अर्पण कर दिया उसके लिए इसके सिवा कोई और कर्तव्य नहीं रहता कि वह अपने समर्पण को अधिकाधिक पूर्ण बनाये । संसार और उसमें रहने वाले मनुष्यों ने हमेशा मानव अर्थात् सामाजिक और पारिवारिक कर्तव्यों को भगवान् के प्रति कर्तव्य के पहले रखना चाहा है । उन्होंने भगवान् के प्रति कर्तव्य को अहंकार कहकर कलंकित किया है । वे दूसरी तरह से मूल्यांकन कर ही कैसे सकते थे जिन्हें भगवान् की वास्तविकता का कोई अनुभव नहीं है ? लेकिन भगवान् की दृष्टि में उनकी राय का कोई मूल्य नहीं है, उनकी इच्छा में कोई शक्ति नहीं है । वे अज्ञान की गतिविधियां हैं, उससे बढ़कर कुछ नहीं । तुम्हें उन्हें विश्वास दिलाने की कोशिश न करनी चाहिये और सबसे बढ़कर यह कि तुम्हें अपने-आपको प्रभावित होने या डिगने न देना चाहिये । तुम्हें अपने-आपको सावधानी के साथ समर्पण के एकान्त में बन्द कर लेना चाहिये और केवल भगवान् से ही सहायता, संरक्षण, पथ-प्रदर्शन और समर्थन की अपेक्षा रखनी चाहिये । जिसे मालूम हो कि उसे भगवान् की स्वीकृति और उनका समर्थन प्राप्त है उसे सारे संसार द्वारा निन्दित होने की परवाह नहीं होती ।

 

    इसके अतिरिक्त क्या मानवजाति ने अपने अस्तित्व की व्यवस्था में अपनी पूर्ण अक्षमता प्रमाणित नहीं कर दी है ? सरकारों के बाद सरकारें आती हैं, राज्यों के बाद राज्य बदलते हैं, सदियों पर सदियां बीतती जाती हैं परन्तु मानव दुर्दशा शोचनीय रूप में वह-की-वही बनी रहती है । जब तक मनुष्य जो है वह-का-वही बना रहेगा यानी अंधा और अज्ञानी तथा समस्त आध्यात्मिक वास्तविकता के प्रति बन्द, तब तक यह दुर्दशा भी

 

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वैसी ही बनी रहेगी । रूपान्तर करके और मानव चेतना को आलोकित करके ही मानव जाति की अवस्था में सच्चा सुधार लाया जा सकता है । अत: मानव जीवन के दृष्टिकोण से भी यही तर्क-संगत ठहरता है कि मनुष्य का पहला कर्तव्य यह है कि वह दिव्य चेतना को खोजे और प्राप्त कर ले ।

१३ जून, १९३७

 

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    हम अन्य प्रभावों से अलग, केवल 'तेरे' ही प्रभाव में रहें ।

 

हर शक्ति या सामर्थ्य का अन्य शक्तियों और सामर्थ्यों पर प्रभाव होता है और यह प्रभाव पारस्परिक होता है । इस निरन्तर और व्यापक अस्तव्यस्तता या प्रभाव से बचने के लिए केवल एक ही रास्ता है : ऐकान्तिक रूप से इस 'दिव्य चेतना' पर एकाग्र होना और अपने-आपको इस 'दिव्य चेतना' की ओर खोलना ।

 

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    अगर मानव सम्बन्ध और उनकी आदतें तथा आसक्तियां बनायी रखी जायें तो भगवान् के प्रति सच्चा सम्पूर्ण समर्पण नहीं हो सकता । सभी सम्बन्धों को ऊपर केवल भगवान् की ओर मोड़ना चाहिये और ऐक्य तथा समर्पण के साधनों में रूपान्तरित करना चाहिये ।

 

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    प्राणिक सम्बन्ध हमेशा खतरनाक होते हैं ।

 

    भगवान् के प्रति प्राण का सम्पूर्ण, निरपेक्ष निवेदन ही एकमात्र समाधान है ।

 

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     १ 'प्रार्थना और ध्यान', २३ अक्तूबर १९३७ ।

 

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    तुमने भागवत मैत्री की अपेक्षा मानव मैत्री को पसन्द किया । लेकिन मानव मैत्री अस्थिर होती है और अब तुम्हें लगता है कि तुम दोनों से कट गये हो । यह नहीं कि भगवान् ने अपनी मैत्री तुमसे खींच ली है--वे उसे कभी नहीं हटाते--लेकिन तुम प्राणिक असमर्थता की स्थिति में जा गिरने के कारण उसका आनन्द नहीं उठा पा रहे हो ।

 

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    भगवान् के साथ हमेशा सम्पर्क में रहने के हमें क्या करना चाहिये कि भी व्यक्ति या घटना हमें इस सम्पर्क से अलग न

कर सके ? 

 

अभीप्सा, सचाई ।

१९७२

 

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